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इस लेख के शीर्षक में उठाया गया सवाल कुछ भ्रामक धारणाओं पर आधारित है- एक, हिन्दी मुख्यधारा में नहीं है, दो, हिन्दी को मुख्यधारा में लाये जाने में सन्देह है, तीन, अगर हिन्दी मुख्यधारा में आयी भी तो इस बात में सन्देह है कि वह सम्मानजनक भाषा के रूप में आ पायेगी। इन धारणाओं की परीक्षा करने से पहले हम यह देखें कि यह तथाकथित मुख्यधारा क्या है?
सामान्यतया जिस भाषा को शासन और समाज द्वारा सबसे अधिक उपयोग में लाया जाता है, उसे मुख्यधारा की भाषा कहा जाता है। हिन्दी इस कसौटी पर खरी उतरती है। देश के 60 प्रतिशत से अधिक लोग धड़ल्ले से हिन्दी बोलते-समझते हैं। सरकारी कामकाज की घोषित भाषा भी हिन्दी ही है। हालांकि अधिकांश लोग अभी भी अंग्रेजी का प्रयोग करने की मानसिकता से ग्रस्त हैं, इसलिए ऐसी जगह जहाँ सरलता से हिन्दी का प्रयोग किया जा सकता है, वे अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं, भले ही वे अंग्रेजी शब्दों की वर्तनी गलत-सलत लिखते हों और अंग्रेजी व्याकरण की टाँग तोड़ते हों।
इसी भ्रम के कारण यह मान लिया जाता है कि अंग्रेजी ही भारत की मुख्यधारा में है और हिन्दी नहीं है। इसलिए हिन्दी को मुख्यधारा में लाने की बात की जाती है। वैसे अंग्रेजी को मुख्यधारा में मानने वाले ज्यादा गलत भी नहीं हैं, क्योंकि स्वतंत्रता प्राप्ति को 66 वर्ष बीत जाने के बाद भी आज हम हिन्दी को मुख्य राजकाज की भाषा नहीं बना सके हैं। भले ही घोषित रूप से हिन्दी हमारी राजभाषा है और देश को राजभाषा की दृष्टि से ‘क’, ‘ख’ और ‘ग’ इन तीन क्षेत्रों में बाँटा गया है, जिनमें से ‘क’ क्षेत्र में शत प्रतिशत कार्य हिन्दी में होने की आशा की जाती है। लेकिन वास्तविकता यह है कि सभी क्षेत्रों में लगभग सारा कार्य आज भी अंग्रेजी में किया जाता है और हिन्दी केवल हिन्दी दिवस, पखवारा या माह मनाकर खानापूरी करने की भाषा बनकर रह गयी है।
अब प्रश्न उठता है कि हिन्दी को किस प्रकार मुख्यधारा में लाया जा सकता है? इसका एक सीधा सा जबाब तो यह है कि इसके लिए हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी। जब तक स्वयं हिन्दी भाषी लोग हिन्दी को अपने दैनिक, व्यक्तिगत और सरकारी काम-काज की भाषा नहीं बनायेंगे, तब तक यह उम्मीद करना कि अन्य अर्थात् अहिन्दी भाषी लोग उसका भरपूर उपयोग करने लगेंगे, दिवास्वप्न ही होगा। यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि अहिन्दी भाषियों को हिन्दी भाषा से कोई एलर्जी या चिढ़ नहीं है, लेकिन जब तक हम स्वयं अपनी मातृभाषा को सम्मान देना नहीं सीखेंगे, तब तक दूसरे लोग उसको क्यों सम्मान देना चाहेंगे? इसलिए सबसे पहले हमें स्वयं अपनी मातृभाषा का अधिकतम उपयोग करना होगा।
दूसरा और महत्वपूर्ण जबाब यह है कि भाषा का प्रश्न सीधे रोटी से जुड़ा हुआ है। जब तक सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों में अंग्रेजी जानने की अनिवार्यता बनी रहेगी, तब तक हिन्दी को उसका उचित स्थान प्राप्त होना बहुत कठिन ही नहीं लगभग असम्भव है। यह घोर बिडम्बना है कि हमारी प्रथम राजभाषा और प्रधान राष्ट्रीय भाषा होने के बाद भी उच्च सरकारी नौकरियों में हिन्दी जानना आवश्यक नहीं है, लेकिन एक विदेशी भाषा अंग्रेजी जानना अनिवार्य है। हिन्दी को उसका उचित सम्मानजनक स्थान प्राप्त न होने में यही सबसे बड़ी बाधा है।
इसलिए यदि हम यह चाहते हैं कि हिन्दी मुख्यधारा में आये और सम्मानजनक रूप से आये, तो उसके लिए इस सबसे बड़ी बाधा को पार करना या हटाना होगा। लेकिन दुर्भाग्य से नेहरू से लेकह हमारे आजतक के सत्ताधारियों में प्रारम्भ से ही अंग्रेजी के प्रति कुछ ऐसा मोह रहा है कि उससे मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। इस्रायल में स्वतंत्रता के बाद वहाँ के प्रथम राष्ट्रपति ने एक सप्ताह में ही अपनी भूली-बिसरी भाषा हिब्रू को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया था और उसको पढ़ना-जानना सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य कर दिया था। परन्तु हमारे भारत महान् में नेहरू जैसे अंग्रेजी-भक्त पैदा हुए और स्वतंत्रता के बाद देश के सर्वेसर्वा बने, जिनको हिन्दी से बहुत चिढ़ थी। इसलिए प्रारम्भ से ही हिन्दी को उसका वह उचित स्थान नहीं मिला, जिसके लिए वह आज तक तरस रही है।
यदि सरकारी नौकरियों में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त हो जाये और हिन्दी का ज्ञान अनिवार्य कर दिया जाये, तो आज जितने भी अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय हैं वे एक रात में ही हिन्दी माध्यम के विद्यालयों में बदल जायेंगे, क्योंकि ये विद्यालय वास्तव में केवल नौकरशाह पैदा करने का कार्य करते हैं। इसलिए हिन्दी को सम्मानजनक रूप से मुख्य धारा में लाने का प्रमुख उपाय यही है कि उसको रोटी से सीधा जोड़ा जाये और हर स्तर की नौकरियों में उसका कार्यसाधक ज्ञान अनिवार्य किया जाये।
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