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दंगों का सच और आजम खाँ का झूठ

खट्ठा-मीठा
खट्ठा-मीठा
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मैं अपने पिछले लेख ‘मुजफ्फर नगर के सबक’ में स्पष्ट लिख चुका हूँ कि कुछ सेकूलर कहलाने वाले दल और नेता अपने निहित स्वार्थों के लिए हिन्दू-मुसलमानों को आपस में लड़ाते हैं और उनकी जान लेने तक में संकोच नहीं करते। एक चैनल ने हाल ही में स्टिंग आपरेशन से जो खुलासा किया है उससे मेरी बात की पुष्टि होती है।
इस चैनल ने कई पुलिस अधिकारियों को यह कहते हुए दिखाया है कि आजम नाम के एक नेता ने आदेश दिये थे कि कुछ भी करने की जरूरत नहीं है और जो हो रहा है होने दो। इतना ही नहीं ऊपरी आदेशों के कारण उनको उन 7 लोगों को छोड़ने के लिए भी बाध्य होना पड़ा, जिनको दो युवकों की हत्या में चश्मदीदों की सूचनाओं के आधार पर पकड़ा गया था।
इस खुलासे के बाद केबिनेट मंत्री आजम खाँ ने जो सफाई दी है, उससे पुलिस अधिकारियों की बात की पुष्टि ही होती है। आजम खाँ ने अपनी सफाई में तीन बातें कही हैं-
1. मैं मुजफ्फर नगर इसलिए नहीं गया कि मेरे जाने से बात बिगड़ जाती।
2. मैंने किसी अधिकारी को कोई फोन नहीं किया।
3. मैंने दंगा रोकने हेतु कार्यवाही करने के लिए अधिकारियों से सम्पर्क किया था, लेकिन अधिकारी मेरी बात नहीं मानते।
ये तीनों बातें परस्पर झूठ हैं। जब उन्होंने कोई फोन नहीं किया और वे व्यक्तिगत रूप से भी वहाँ नहीं गये, तो उन्होंने सम्पर्क कैसे किया था? क्या कोई चिट्ठी या ई-मेल भेजी थी? स्पष्ट है कि मंत्री जी सरासर झूठ बोल रहे हैं।
उनकी इस बात पर कौन विश्वास करेगा कि अधिकारी उनकी बात नहीं मानते? जिस व्यक्ति को राज्य का सुपर-मुख्यमंत्री कहा जाता हो, किस अधिकारी की मजाल है कि उसकी बात न माने? केवल फेसबुक पर कमेंट करने पर लेखक को गिरफ्तार करने के लिए जो आदमी तत्काल पुलिस भेज सकता है और दुर्गा नागपाल जैसी आई.ए.एस. अधिकारी को मिनटों में निलम्बित करा सकता है, क्या कोई अदना सा थानेदार उसके हुक्म को मानने से इंकार कर सकता है? कोई मूर्ख ही इस बात को मानेगा।
इस सबसे स्पष्ट है कि लड़की छेड़ने की घटना और उसकी प्रतिक्रिया में हुई घटनाओं को भयंकर साम्प्रदायिक दंगों में बदलने की साजिश ऊँचे स्तर पर रची गयी, ताकि आगामी चुनावों में वोटों का ध्रुवीकरण हो। मुसलमानों के अपने नेताओं ने ही मुसलमानों को अपनी गन्दी राजनीति का मोहरा बनाकर मरवाया और दूसरी ओर हिन्दुओं को भी उकसाकर दंगों को हवा दी। पुलिस को निष्क्रिय कर देना इसी साजिश का अंग था। यदि पुलिस अधिकारियों को अपने विवेक के अनुसार कार्यवाही करने दी गयी होती, तो मामला शुरू में ही समाप्त हो जाता।
इस सारे घटनाक्रम से मुसलमानों की आँखें खुल जानी चाहिए। अगर अभी भी वे अपने दुश्मनों और दोस्तों की सही पहचान नहीं कर पाते, तो आगे चलकर उन्हें और भी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

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