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महाभारत का एक प्रसंग – बकासुर वध

खट्ठा-मीठा
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वारणावत् के षड्यंत्र से बचकर पांडव बहुत दिनों तक राक्षसों के क्षेत्र में रहे थे और फिर भगवान वेदव्यास के आदेश पर उस वन क्षेत्र से दूसरी ओर अर्थात् उत्तर-पूर्व की ओर आर्यों की आबादी में निकले थे। उनको वेदव्यास से यह सूचना मिल गयी थी कि कांपिल्य नगरी में महाराजा उग्रसेन द्रुपद की पुत्री कृष्णा (द्रोपदी) का स्वयंवर होने वाला है, जिसमें धनुर्वेद की बहुत कठिन प्रतियोगिता रखी गयी है। वेदव्यास का आदेश था कि पांडवों को अवश्य इस प्रतियोगिता में भाग लेना चाहिए और तब तक अपनी पहचान छिपाये रखनी चाहिए।

प्रतियोगिता में अभी कई माह बाकी थे और पांडवों को अपने पहचाने जाने का डर था, इसलिए भगवान वेदव्यास ने ही वहाँ एकचक्रा नामक नगरी में एक परिचित ब्राह्मण के घर गुप्तरूप में उनके निवास की व्यवस्था करा दी थी। वहाँ रहते हुए वे ब्राह्मणों के वेश में भिक्षा के लिए निकलते थे और फिर लौटकर भोजन ग्रहण करते थे। इसी तरह वे दिन व्यतीत कर रहे थे।

एक दिन जब वे विश्राम कर रहे थे, तो उन्होंने अपने आतिथेय ब्राह्मण के घर में रोने-धोने की आवाज सुनी। वे उनकी बातचीत को ध्यान लगाकर सुनने लगे। सभी रो रहे थे और अपने-अपने प्राण देने की बात कर रहे थे। महारानी कुंती से यह न देखा गया। वे उनके पास आकर पूछने लगीं कि आप लोग क्यों रो रहे हैं और प्राण देने की क्या बात है? बहुत पूछने पर गृहस्वामी ब्राह्मण ने बताया- ‘इस नगरी के पास एक पहाड़ी की गुफा में बकासुर नामक एक राक्षस रहता है। उससे नगर के शासक ने यह समझौता कर रखा है कि प्रतिदिन उसके पास एक व्यक्ति उसका भोजन लेकर आया करेगा। इस तरह रोज ही कोई न कोई व्यक्ति उसका भोजन लेकर जाता था और राक्षस उसको भी मार देता था। कल हमारी बारी आयी है, इसलिए हममें से किसी को जाना पड़ेगा और अपने प्राण देने पड़ेंगे।’

कुंती को यह जानकर बहुत दुःख हुआ। उन्होंने उस ब्राह्मण से कहा कि तुम चिन्ता मत करो। मेरे तो पाँच पुत्र हैं, मैं उनमें से किसी को राक्षस का भोजन लेकर भेज दूँगी। यह सुनकर ब्राह्मण कहने लगा- ‘आप हमारी अतिथि हैं, मैं आपके प्राण संकट में नहीं डाल सकता, यह बहुत बड़ा पाप होगा।’ लेकिन कुंती ने उसे समझाया कि मेरे पुत्र बहुत बलशाली हैं, वे राक्षस को अवश्य मार डालेंगे। काफी कहने पर ब्राह्मण मान गया।

अगले दिन कुंती ने भीम को भेज दिया। भीम भोग्य सामग्री से भरे छकड़े को खींचते हुए उस पहाड़ी के पास पहुँचे। वे जानबूझकर आराम से चलते हुए गये थे और देर से पहुँचे थे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने आवाज लगायी- ‘बक, तुम कहाँ हो? मैं तुम्हारा भोजन लाया हूँ, आ जाओ।’ यह कहकर वे स्वयं ही उस खाद्य सामग्री को उदरस्थ करने लगे।

भीम की आवाज सुनकर बक को बड़ा आश्चर्य हुआ। आज तक किसी ने उसे नाम से पुकारने की हिम्मत नहीं की थी। उसके भोजन का समय हो चुका था और अभी तक भोजन न आने पर वह क्रोधित था। वह क्रोध में दहाड़ते हुए आया, तो देखा कि भोजन लाने वाला आदमी खुद ही उसका भोजन खाये जा रहा है। अत्यन्त क्रोध में भरकर वह भीम की पीठ पर मुक्के बरसाने लगा। भीम ने कहा- ‘जरा रुक जाओ। मुझे भोजन तो कर लेने दो।’

जब भीम का पेट भर गया, तो वे बक से बोले- ‘बक! तुम बहुत दिनों से इस नगर के लोगों को सता रहे हो। अब समय आ गया है कि उसका हिसाब चुकता कर लिया जाये।’ यह कहकर उन्होंने बक को मार-मार कर भुरकस बनाना शुरू किया। बक भूखा तो था ही, काफी ठुकाई होने के बाद जब वह शिथिल पड़ गया, तो भीम ने उसकी दोनों बाँहें तोड़ डालीं। इससे वह जानवर की तरह डकराने लगा। फिर वे उसकी छाती पर कूदने लगे। जब वह मरणासन्न हो गया, तो भीम ने उसकी गरदन मरोड़ दी, जिससे वह सदा के लिए शान्त हो गया। इसके बाद भीम उसकी लाश को उसी छकड़े पर लाद लाये और अंधेरा होने के कुछ देर बाद ही उसकी लाश उस नगर के मुख्य द्वार के बाहर डाल दी।

दूसरे दिन सुबह नगर के लोगों ने देखा कि बक की लाश नगर के बाहर पड़ी हुई है, तो उनको बहुत आश्चर्य हुआ। वे उस ब्राह्मण के घर आये, जिसकी कल बारी थी और पूछने लगे कि उसने ऐसा कैसे किया। तब उस ब्राह्मण ने बताया कि यह उसके घर में रह रहे एक अतिथि परिवार के युवक ने किया है। नगर के लोग उस अतिथि का अभिनन्दन करने के लिए जोर देने लगे। यह जानकर ब्राह्मण पांडवों को बुलाने भीतर गया, तो देखा कि वहाँ कोई नहीं था। वास्तव में उस घर के बाहर लोगों की भीड़ इकट्ठी होते देखकर ही पांडव सारा मामला समझ गये थे और अपनी पहचान छिपाने के लिए पिछले दरवाजे से निकलकर चले गये थे, जिससे किसी को उनका पता नहीं चला।

स्वयं कष्ट उठाते और अपरिचित रहते हुए भी सबकी भलाई के लिए कार्य करना पांडवों का स्वभाव था। बकासुर वध की इस घटना से इस बात की पुष्टि होती है।

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