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हिन्दू होने का दर्द

खट्ठा-मीठा
खट्ठा-मीठा
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घोषित इस्लामी देश पाकिस्तान से अल्पसंख्यक हिन्दूओं द्वारा अपनी जान और इज्जत बचाकर भारत आने की घटनायें नयी नहीं हैं। कहने को पाकिस्तान में ‘अल्पसंख्यकों को पूरा संरक्षण’ दिया जाता है, लेकिन वास्तविकता सबको मालूम है। हर महीने अनेक हिन्दू लड़कियों के बलात अपहरण और उनको जबर्दस्ती कलमा पढ़वाकर निकाह कराने के समाचार आते रहते हैं। ऐसी प्रत्येक घटना पर थोड़े दिन शोर मचता है, फिर सब चुप हो जाते हैं और यह सिलसिला चलता रहता है। ऐसी हालत में यह आश्चर्यजनक नहीं है कि कुछ माह पहले सैकड़ों पाकिस्तानी हिन्दू परिवारों के 480 सदस्य वैध तरीके से तीर्थ यात्रा के बहाने भारत आये और अब यहाँ से वापस जाना ही नहीं चाहते। वे भारत में ही शरण चाहते हैं क्योंकि पाकिस्तान में उनकी जान-माल और इज्जत को भारी खतरा है। उनके लिए भारत के अलावा और कोई सुरक्षित ठिकाना नहीं है, क्योंकि भारत में ईश्वर की दया से अभी भी हिन्दू बहुसंख्या में हैं।

सामान्य अवस्था में ऐसे पीडि़त परिवारों को उस देश की सरकार द्वारा तत्काल शरण दे दी जाती है, जिसमें वे शरण लेना चाहते हैं। लेकिन हमारे महान् भारत की महान सेकूलर सरकार ऐसा नहीं कर रही है और उन परिवारों को जबर्दस्ती पाकिस्तान में धकेल देना चाहती है, चाहे वहाँ उनका कुछ भी किया जाए। इन निरीह परिवारों का अपराध बस इतना है कि वे हिन्दू हैं और अपना धर्म-ईमान छोड़ने को तैयार नहीं हैं। हिन्दू होना ही उनका सबसे बड़ा दोष है। यदि वे पाकिस्तानी हिन्दू न होकर बंगलादेशी होते, तो यहाँ उनके लिए तमाम सेकूलर लोग पलक पाँवड़े बिछाये होते। उनको न केवल अघोषित शरण दी जाती, बल्कि खुले रूप में मस्जिदों में निवास का प्रबंध भी कर दिया जाता। बाद में यथा समय उनको राशन कार्ड, आधार कार्ड और वोटर कार्ड ही नहीं पासपोर्ट तक बनवा दिया जाता।

इन परिवारों की गलती यह है कि वे पूरे वैध तरीके से पासपोर्ट बनवाकर और वीजा लेकर भारत आये हैं और गायब नहीं हुए हैं। अगर वे क्रिकेट मैंच देखने के बहाने आये होते और गायब हो गये होते, तो देश के किसी भी हिस्से में मजे में रह रहे होते। अगर वे बंगलादेशी घुसपैठियों की तरह ‘गर्दनिया पासपोर्ट’ लेकर रात के अँधेरे में चुपके से घूसे होते तो, देश की राजधानी तक में खुलेआम रह रहे होते। उनके तमाम भाईबन्द उनके लिए रहने, खाने और काम करने तक का इंतजाम कर देते। मतदाता बनकर वे चुनाव तक लड़ सकते थे और एमएलए एमपी भी बन सकते थे। लेकिन फिर बात वही कि उनका सबसे बड़ा दोष हिन्दू होना और वैध तरीके से आना है।

इन निरीह हिन्दुओं की सहायता करने के लिए कोई भी संगठन आगे नहीं आ रहा है। वे भी नहीं जो हर बात पर बयान दागते रहते हैं और मोमबत्तियाँ जलाते रहते हैं। हिन्दुओं के स्वयंभू रहनुमा विश्व हिन्दू परिषद भी उनकी दयनीय दशा पर कान में रुई ठूँसे बैठे हैं। ऐसे में सरकार को क्या पड़ी है कि वह इनको शरण देकर अपनी सेकूलरिटी पर दाग लगाये?

यहाँ तथाकथित मानवाधिकार संगठनों के शर्मनाक रवैये पर भी बोलना आवश्यक है। सभी आतंकवादियों, हत्यारों, नक्सलवादियों और बलात्कारियों तक के मानवाधिकारों के ये स्वयंभू प्रवक्ता इन हिन्दुओं की दयनीय दशा पर होठ सिले बैठे हैं। इन्होंने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि ये मानवाधिकार नहीं ‘दानवाधिकार’ संगठन हैं। शायद ये हिन्दुओं को तो मानव मानते ही नहीं, वरना गाँधी के तीनों बन्दर एक साथ बने न बैठे रहते। धिक्कार!

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